Friday, 30 January 2015

बस यूँ ही

माफ़ करना नये है अभी लिखने के दौर में
लिखने की सोचते सोचते ही कई बसंत गवाँ दिए

पैसे कमाने की होड़ में होके मगरूर
कौन वीराने मे हम पहुँच गये अपनो से दूर

बैगानों मे ढूँढ रहे है अपनो का वजूद
ना जाने कब अपने नंबरो मे तब्दील हो गये
वॅट्स्प, फेश्बुक के फोटो में लगे रहे हम
खुद को अंदर से देखे कितने अरसे हो गये

कल तक कतराई नज़रों से देख 
समझ ना सके क्यूँ पीते है लोग
दो घूँट क्या आज मार ली 
पूछ बैठे बिन तेरे कैसे जीते है लोग

खयालों मे बातो का भरा समंदर, पर देख उसको होंठ सील जाते
न जाने उसकी आँखों की कशिश या दिल की नाकाफी दुशाहश है
की लाख लगा जोर पर भी ये लड़खड़ाते कदम ना संभल पाते



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